बेमानी कानूनों से छुटकरे की पहल
राजस्थान में कुछ वक्त पहले तक 592 कानूनों का बोझ था। इनमें से 150 से यादा पिछले वर्ष खत्म कर दिये गये। कानून खत्म करने की ऐसी पिछली समीक्षा 1964 में हुई थी। हालांकि तब भी कोई मूल कानून रद नहीं किया गया था। खत्म किये गये 15 कानूनों से जुड़ा रोचक तथ्य ये है कि विभागों के पास समीक्षा समिति को सौंपने के लिए उन कानूनों की प्रतियां नहीं थीं जिन्हें वे लागू कर रहे थे। ऐसे में कानूनों को राजकीय मुद्रणालय और बीकानेर स्थित राजकीय अभिलेखागार से हासिल किया गया।
‘अति का भला ना बोलना, अति की भली ना चुप…अति का भला ना बरसना, अति की भली ना धूप’, कबीर दास का यह दोहा संतुलन पर जोर देता है कि यादा बोलना और यादा चुप रहना उसी तरह ठीक नहीं है जैसे मौसम में यादती। कानून बनाने वालों के लिए यह दोहा महत्वपूर्ण है क्योंकि बहुत यादा कानून न केवल हमारी न्यायिक प्रणाली में अड़ंगे लगाते हैं बल्कि उत्पीड़न और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।
सरकार और नागरिकों के बीच संपर्क बेहतर बनाने के लिए कानूनों की प्रासंगिकता की समीक्षा निश्चित रूप से अहम है। कानून खत्म करने के लिए राजस्थान ने तीन आधार तय किये- यदि कानून का इस्तेमाल न हो रहा हो, यदि एक ही मुद्दे पर कोई और कानून या नियम हो और यदि इससे विवेक के अनावश्यक इस्तेमाल और जनता के उत्पीड़न में कमी होती हो। सभी लोकतंत्रों में कानूनों पर चर्चा एक स्थायी व्यवस्था है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र, अमेरिका में इस मुद्दे पर होने वाले तनावों में लगातार सामंजस्य बिठाया जाता है कि क्या संविधान को थॉमस जेफरसन की सख्त संविधान की घोषित अवधारणा के दायरे में ही रखा जाए या कुछ ‘सैद्धांतिक सांस’ लेने की जगह दी जाए जिसे अलेक्जेंडर हैमिल्टन और जॉन मार्शल ‘उचित’ और ‘निष्पक्ष’ व्याख्या कहते थे।
अपनी नयी किताब ‘दि क्लासिक लिबरल कॉन्सटीट्यूशन’ में रिचर्ड एप्सटीन लिखते हैं कि ‘जेफरसन और उनके अनुयायियों ने जोर देकर कहा कि अगर सख्त संविधान के तर्क को नहीं माना गया तो अदालतें अपने विस्तृत सोच से संविधान को खत्म कर देंगी जबकि दूसरे पक्ष ने कहा कि यह तर्क मान लिया गया तो संविधान जड़ हो जाएगा और एक ऐसे दिखावटी शानदार ढांचे में परिवर्तित हो जाएगा जो किसी काम का नहीं।’
बाबा साहब अंबेडकर हैमिल्टन की बात से सहमत थे। संविधान सभा में 1950 में अपने समापन भाषण में उन्होंने कहा था, ‘यह विचार हनन के खिलाफ लाभकारी प्रावधान हो सकता है लेकिन एक देश के लिए बेतुका होगा कि राष्ट्र के उपयोग के लिए स्थापित संस्थाओं में बदलाव या संशोधन नहीं किया जा सकता, यहां तक कि उन्हें जवाबदेह भी नहीं बनाया जा सकता। हमें अपने लिए और भावी पीढ़ियों के लिए कानून बनाने और लागू करने का हक है लेकिन न तो हमें और न ही भावी पीढ़ियों को बदलने का हक न होने वाली अवधारणा ऐसी होगी मानो धरती पर मौजूद लोग जिंदा तो हों लेकिन उन्हें हाथ-पांव हिलाने का अधिकार न हो।’
राजस्थान सरकार अंबेडकर के इस विचार से सहमत है कि हमारे कानून जीवित दस्तावेज होने चाहिए जिनकी एक नागरिक की नजर से लगातार समीक्षा होती रहे और सवाल उठते रहें। यह समझ से परे है कि राजस्थान रिफ्यूज (कन्वर्जन ऑफ मैन्योर) ऐक्ट 1951, वैक्सिनेशन ऐक्ट 1957, माइनर इरिगेशन ऐक्ट 1953, इलेक्टिसिटी ड्यूटी ऐक्ट 1962, मोटर वेहिकल टैक्सेशन ऐक्ट 1987 और कोल कंट्रोल ऑर्डर ऐक्ट 1964 जैसे कानून किस तरह सरकार या नागरिकों के मददगार हैं?
इस परियोजना के तीन चरण हैं- खत्म करना, संकलन और प्रासंगिकता की जांच। पहला चरण जल्दी ही समाप्त होने वाला है। इसमें जनता से विस्तृत चर्चा की गयी और नीति आयोग के सक्रिय सुझाव लिए गये। दूसरे चरण में घालमेल खत्म किया जाएगा मसलन क्या उच शिक्षा के लिए रास्थान को वाकई 75 अलग-अलग कानूनों की जरूरत है? तीसरा चरण यानी प्रासंगिकता की जांच थोड़ा जटिल है। इसके लिए सभी पक्षों से गहन विचार विमर्श जरूरी है।
इस योजना का एक नतीजा यह निकला है कि हमने 37 विभागों के 598 नियमों की सूची तैयार की है लेकिन यह काम अभी खत्म नहीं हुआ है। अगले वर्ष तक हम सभी कानूनों और नियमों को ऑनलाइन कर देंगे और यह सभी नागरिकों को आसानी से उपलब्ध होंगे क्योंकि पारदर्शिता से तमाम विकृतियां दूर होती हैं।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1928 में बारदोली में अंग्रेजों से कहा था, ‘आपकी सरकार पगला गयी है। वह सोचती है कि उसके पांव के नीचे सबको कुचला जा सकता है। जैसे पागल हाथी शेर और बाघ को कुचलने के दंभ में डूबा रहता है और मछऱ की ओर देखता भी नहीं। मैं इस छोटे से मछर को सिखा रहा हूं कि मद में चूर हाथी को अभी झूमने दे लेकिन मौका मिलते ही उसकी सूंड़ में घुस जाए।’
नमक पर टैक्स के प्रश्न पर गांधी जी साबरमती से दांडी तक 390 किलोमीटर चल कर गये। जाहिर है वह 1953 के नमक उपकर कानून से दुखी हुए होते। लेकिन आज यादातर भारतीय गैर निर्वाचित लोगों के बनाए गये 1873 के संविदा अधिनियम, 1885 के टेलीग्राफ अधिनियम, 1860 की दंड संहिता और 1872 के साक्ष्य अधिनियम जैसे आज भी मौजूद कानूनों के असर के बारे में सोचते भी नहीं।
विधायी इतिहास के अनावश्यक बोझ को हटाने की कानून निर्माताओं की स्वैछिक पहल इस बात का सबसे अछा सबूत है कि जो भारत के हित में नहीं है उन नियमों को हटाने में कोई बुराई नहीं है।
(लेखिका राजस्थान की मुख्यमंत्री हैं)